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एकांत में हम अपने साथ जो व्यवहार करते हैं, वही धर्म है

एकांत में हम अपने साथ जो व्यवहार करते हैं, वही धर्म है

1909 से मैंने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शन पढ़ाना शुरू किया था। इस दौरान भारतीय दर्शन धर्म का गंभीरता से अध्ययन करता रहा। मुझे जल्दी ही ये विश्वास हो गया कि आत्म अनुभव ही धर्म है, जिसे किसी अन्य वस्तु के साथ नहीं मिलाया जा सकता, नैतिकता के साथ भी नहीं। धर्म तो मूलतः हमारे आंतरिक जीवन से जुड़ा है। इसका उद्देश्य उस बिंदु तक पहुंचना है, जो जीवन को व्यर्थ की वस्तुओं और भयंकर निराशा से ऊपर उठाता है। धर्म का अंतिम लक्ष्य सत्य का अनुभव करना है।
दर्शन का थोड़ा भी ज्ञान इंसान को नास्तिकता की ओर ले जाता है, लेकिन दार्शनिकता में उतरने पर मन अपने आप धर्म की ओर खिंचा चला आता है। धर्म को तो इस मानदंड से हमें मापना है कि क्या यह मूल्यों को सुरक्षित रखता है, जीवन को सार्थक बनाता है और हममें साहसिक कृत्यों को पूरा करने के लिए आत्मविश्वास पैदा करता है! इसकी जड़ें भावना, संकल्प शक्ति या बुद्धि की अपेक्षा मनुष्य की आत्मा में अधिक गहरी गई हुई हैं। अनंत की अनुभूति धर्म का आधार है। यह अनुभूति, आंखें जो देखती हैं और कान जो सुनते हैं, उनसे संतुष्ट नहीं होती। समय मूल्यवान है, लेकिन उससे भी ज्यादा मूल्यवान है सत्य। इस सत्य को खोजना भी धर्म है।

एकांत में हम अपने साथ जो व्यवहार करते हैं, उसी का नाम धर्म है। हममें से हर एक व्यक्ति के अंदर एक छुपा हुआ देवालय है, जहां कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता। इस मंदिर में हमें प्रवेश करना चाहिए, जो हमारे उस बाहरी स्वरूप से बिल्कुल अलग है, जो हम बाहर की दुनिया के सामने प्रकट

करते हैं। मौन और ध्यान ही सारी पूजा का सार है। बतों और प्रार्थनाओं का नाम पूजा नहीं है। अपने चारों ओर फैली अव्यवस्था के बीच ही हमें अपने भाग्य निर्माण करना होगा। नहीं तो हमारा जीवन विसंगत और निरुद्देश्य घटनाओं का एक अर्थहीन क्रम बन जाएगा। जीवन में तभी सार्थकता आती है, जब हम उन सब बाधाओं में, जो इसकी बुद्धि की अवरोधक हैं, एक विशेष उद्देश्य का अनुसरण करते हैं।

जीवन में गुरु के विचारों को समझने के लिए जो आलोचनात्मक समझ होनी चाहिए. वह मस्तिष्क का खुलापन हम नहीं प्राप्त कर सकते हैं। जो सच्चे गुरु होते हैं, वे नई परिस्थितियों में विचार करने में हमारे लिए सहायक होते हैं। हम योग्य शिष्य बनेंगे अगर हम प्रश्न करें...इसलिए जीवन में प्रश्न करने रहना कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सच्चा शिक्षक भगवद्गीता के कृष्ण की तरह है, जो अर्जुन को अपने लिए सोचने और अपनी इच्छानुसार निर्णय लेने की शिक्षा देते हैं।

"जीवन में परेशानियों को कोसें मत। कष्ट से ही हम अपने को और दूसरों को समझ पाते हैं। सच्चे जीवन की शर्त है- कष्ट सहिष्णुता और एकांत चिंतन । केवल बाहरी रूप से जीवन जीने वाले लोग, जो आत्मा की गहराइयों में नहीं गए हैं, इस कष्ट से बच सकते हैं। जब हमें कोई बड़ा मानसिक आघात पहुंचता है, जब हम भयग्रस्त, परेशान और पराजित होकर जीवन की निराश घड़ियों का सामना करते हैं। तब जीवन में उम्मीद की दरकार होती है। धर्म दर्शन, कष्ट ये गुंथे हुए एकांत में बैठकर इन सवालों के जवाब खोजिए।.

डॉ राधा कृष्ण की किताब से

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